वह तेरे पाप थे जिसने उन्हें क्रूसपर रोककर रखा

और  आने  जाने  वाले  सिर  हिला  हिलाकर  उस  की  निन्दा  करते  थे।  और  यह  कहते  थेकि  हे  मन्दिर  के  ढाने  वाले  और  तीन  दिन  में  बनाने  वालेअपने  आप  को  तो  बचायदि  तू  परमेश्वर  का  पुत्र  हैतो  क्रूस  पर  से  उतर  आ।  इसी  रीति  से  महायाजक  भी  शास्त्रियों  और  पुरनियों  समेत  ठट्ठा  कर  करके  कहते  थेइस  ने  औरों  को  बचायाऔर  अपने  को  नहीं  बचा  सकता।  यह  तो  इसराईल  का  राजा  है।  अब  क्रूस  पर  से  उतर  आएतो  हम  उस  पर  विश्वास  करें।  उस  ने  परमेश्वर  का  भरोसा  रखा  हैयदि  वह  इस  को  चाहता  हैतो  अब  इसे  छुड़ा  लेक्योंकि  इस  ने  कहा  थाकि  मैं  परमेश्वर  का  पुत्र  हूं  (मत्ती  २७:३९-४३)

 

ऐसे  ही  कुछ  सवाल  किसी  के  भी  मन  में  आये  होंगे  अगर  उसने  यीशु  मसीह  को  क्रूस  पर  असहाय  हालत  में  देखा  होगा,  ख़ास  इसलिए  क्योंकि  उन्होंने  अपने  आप  के  मसीहा  होने  का,  दैव्य  होने  का  और  परमेश्वर  के  साथ  जुड़ा  हुआ  होने  का  दावा  किया  था।  ये  कैसे  मुमकिन  हुआ  की  जिसने  लोगों  के  सामने  अपने  अद्भुत  अधिकार  और  सामर्थ्य  को  दर्शाया,  वो  ही  अब  खुद  को  यातना  और  शर्मिंदगी  से  नहीं  बचा  पा  रहा।

 

यीशु  मसीह  के  जीवन  में  ऐसे  कई  मौके  आये  जहाँ  वे  निकट  आते  खतरे  से  बच  निकल  गये।  उदाहरन  युहन्ना  ८  –  जब  यीशु  ने  अपने  दैवत्व  को  दर्शाने  के  लिए  खुद  को  “मैं  हूँ”  करके  संभोदित  किया,  तो  तुरन्त  यहुदियों  ने  पत्थर  उठाकर  मंदिर  में  ही  उसे  मारना  चाहा,  परन्तु  यीशु  उनसे  छिपकर  मंदिर  से  निकल  गए।  कुछ  ही  दिनों  बाद  युहन्ना  १०  में  हम  पढ़ते  हैं  की  लोगों  ने  पत्थर  उठाए  ताकी  यीशु  को  पत्थरवाह  करें।  परन्तु  यीशु  किसी  तरह  उनके  पकड़वाये  जाने  और  उनके  हाथों  घात  होने  से  बच  निकले।  उनके  पृथ्वी  पर  सेवकाई  के  दिन  आम  तौर  पर  इसी  तरह  बीते।

 

लेकिन,  फिर  आया  गतसमनी  बाग!  पतरस,  जिसने  तलवार  निकाली  और  प्रहार  करने  को  उठाई,  शायद  यह  समझ  बैठा  की  इस  एक  बार  फिरसे  यीशु  अपने  दोष  लगानेवालों  के  हाथों  से  बच  निकलेगा।  पर  यीशु  जानते  थे  कि  इस  बार  समय  अलग  हैं।  “क्या  तू  नहीं  समझता,  कि  मैं  अपने  पिता  से  बिनती  कर  सकता  हूं,  और  वह  स्वर्गदूतों  की  बारह  पलटन  से  अधिक  मेरे  पास  अभी  उपस्थित  कर  देगा?”  (मत्ती  २६:५३)  केवल  अपने  एक  शब्द  से  यीशु  स्वर्गदूतों  के  बाराह  पलटन  क़ो  खुद  के  बचाव  के  लिए  बुला  सकते  थे।  पुराना  नियम  अगर  पढ़े  तो  पता  लगेगा  की  सिर्फ  एक  स्वर्गदूत  कितना  बड़ा  विनाश  कर  सकता  है।  तब  क्या  होता  अगर  स्वर्गदूत्तों  की  बारह  पलटन  (लगभग  ७२,०००  सामर्थ्यवान  स्वर्गदूत)  प्रभु  को  बचाने  आते?  केवल  एक  शब्द  की  पुकार  से  उन्हें  मदद  मिल  जाती।  लेकिन,  उन्होंने  ऐसा  नहीं  किया।  यही  बात  हम  गतसमनी  बाग,  न्यायालय  में  और  क्रूस  पर  देखते  हैं।  यीशु  ने  अपने  आपको  नहीं  बचाया|

 

प्रभु  के  अन्तिम  क्षणों  का  इस  प्रकार  वर्णन  किया  है  –  “तब  यीशु  ने  फिर  बड़े  शब्द  से  चिल्लाकर  प्राण  छोड़  दिए।”  इन  शब्दों  की  अद्भुतता  यह  है  कि  यीशु  मसीह  के  मारे  जाने  का  वक्त  भी  पूरी  तरह  उन्हीं  के  हाथों  में  था।  भले  ही  हाथ  और  पैर  कीलों  से  छिदे  हो  या  कोड़ों  और  चाबूक  की  मार  खाने  से  उनका  हुलीया  बदल  गया  हो,  फिर  भी  प्रभु  यीशु  ने  अपने  प्राणों  को  अपने  नियुक्त  किए  वक्त्त  अनुसार  ही  छोड़ा  था।  प्रभु  यीशु  की  मृत्यु  अपने  ही  दमपर  किया  उनका  सक्रीय  कार्य  था  और  ना  की  एक  निष्क्रीय  कार्य।  वे  इसलिए  नहीं  मरे  क्योंकी  वे  बर्दाश्त  नहीं  कर  पाए  या  फिर  बहुत  खून  बह  गया  था।  वे  इसलिए  मरे  क्योंकि  उन्होने  जान  लिया  था  कि  उनके  मरने  का  समय  आ  गया  है।  उन्हों  ने  अपना  लक्ष्य  पूरा  कर  दिया  था।  रोम  की  ताक़तों  ने  उन्हें  क्रूसपर  रोक  के  नहीं  रखा।  यहूदी  नेताओं  के  चालाक  षडयंत्र  ने  उन्हें  वहाँ  रोक  के  नहीं  रखा।  कीलों  ने  भी  उन्हें  रोक  के  नहीं  रखा।  परन्तु  उनके  पिता  की  इच्छा  के  प्रती  आज्ञापालन  ने  उन्हें  वहाँ  रोक  के  रखा।  पिता  के  प्रति  और  हमारे  खातिर  जो  प्रेम  था  उस  ने  यीशु  को  क्रूस  पर  रोककर  रखा।  यह  उस  गहरे  प्रेम  का  इज़हार  था  जिसे  संसार  ने  पहले  कभी  नहीं  देखा  होगा,  क्योंकि  वह  तेरे  पाप  थे  जिन्होने  उन्हें  क्रूसपर  रोककर  रखा।

 

पिता  इसलिये  मुझ  से  प्रेम  रखता  हैकि  मैं  अपना  प्राण  देता  हूंकि  उसे  फिर  ले  लूं।  कोई  उसे  मुझ  से  छीनता  नहींवरन  मैं  उसे  आप  ही  देता  हूं:  मुझे  उसके  देने  का  अधिकार  हैऔर  उसे  फिर  लेने  का  भी  अधिकार  है:  यह  आज्ञा  मेरे  पिता  से  मुझे  मिली  है  (यूहन्ना  १०:१७-१८)

 

(टिम  चैलिस  द्वारा  लिखे  गए  एक  लेख  पर  आधारित)

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