लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं?

यीशु मसीह एक बहुत ही रहस्यमय व्यक्ति थे। उनका रूप राजा जैसा नहीं था, फिर भी अपने राज्य की महिमा की बातें करते थे। वह एक सुतार के पुत्र थे, फिर भी उनके बुद्धि की श्रेष्ठता धार्मिक नेताओं को शर्मिंदा करती थी। वह एक आम मनुष्य के समान जीते थे, फिर भी उनके पास बड़े चमत्कार और बीमारियों को चंगा करने की अपार शक्ति थी। इस कारण लोगों को उनके असली पहचान का पता लगाना कठिन था। कुछ लोग यह मानते थे कि वह कोई नबी है, तो कुछ उन्हे सामाजिक-राजनीतिक सुधारक समझते। आज भी कई लोग उन्हे मात्र एक महान शिक्षक-तत्वज्ञानी समझते हैं।

यीशु के साथ तीन साल से ज़्यादा समय बिताने के बाद, निश्चित रूप से उनके करीबी शिष्यों को उनके जीवन का उद्देश्य समझ में आ गया होगा। उन्होंने समझा, लेकिन उन्होंने नहीं समझा! नीचे उल्लिखित बाइबल से ली गई एक घटना है जो बताती है कि यीशु के मकसद के बारे में शुरुआती शिष्य कितने बेखबर थे:

मरकुस 8:27-33 यीशु और उसके चेले कैसरिया फिलिप्पी के गाँवों में चले गए। मार्ग में उसने अपने चेलों से पूछा, “लोग मुझे क्या कहते हैं?” उन्होंने उत्तर दिया, “यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाला; पर कोई कोई एलिय्याह और कोई कोई भविष्यद्वक्‍ताओं में से एक भी कहते हैं।” उसने उनसे पूछा, “परन्तु तुम मुझे क्या कहते हो?” पतरस ने उसको उत्तर दिया, “तू मसीह है।” तब उसने उन्हें चिताकर कहा कि मेरे विषय में यह किसी से न कहना। तब वह उन्हें सिखाने लगा कि मनुष्य के पुत्र के लिये अवश्य है कि वह बहुत दु:ख उठाए, और पुरनिए और प्रधान याजक, और शास्त्री उसे तुच्छ समझकर मार डालें, और वह तीन दिन के बाद जी उठे। उसने यह बात उनसे साफ–साफ कह दी। इस पर पतरस उसे अलग ले जाकर झिड़कने लगा, परन्तु उस ने फिरकर अपने चेलों की ओर देखा, और पतरस को झिड़क कर कहा, “हे शैतान, मेरे सामने से दूर हो; क्योंकि तू परमेश्‍वर की बातों पर नहीं, परन्तु मनुष्यों की बातों पर मन लगाता है।”

पुराने नियम में दिए गए वादों के आधार पर सभी यहूदी यह मानते थे कि परमेश्वर अपने लोगों को उनके बंधन से छुड़ाने के लिए एक मुक्तिदाता भेजेंगे। पतरस और बाकी 11 शिष्य भी यही विश्वास करते थे। लेकिन वे इस बात से अनजान थे कि परमेश्वर उस मुक्ति को कैसे पूरा करेंगे। अगर मुक्तिदाता को अपना कार्य पूरा करना है, तो निश्चित रूप से उसे जीवित और शक्तिशाली बने रहना चाहिए। लेकिन यीशु, जो परमेश्वर द्वारा चुने गए मुक्तिदाता थे, उन्हे मरने के लिए दुश्मनों के हाथों में सौंप दिया जाने वाला था। जिन लोगों के लिए उन्हे भेजा गया था, वे ही उन्हे अपने राजा के रूप में स्वीकार करने से इनकार करने वाले थे। पतरस इस बात को स्वीकार नहीं कर सका। मसीहा दुःख और उपहास कैसे सह सकता है? मसीहा की मृत्यु उसके लोगों को कैसे मुक्ति दिला सकती है? यह तभी हो सकता है, जब उनके लोग समझें कि यीशु किस तरह की मुक्ति देने आए थे।

यीशु के पुनरुत्थान के बाद ही पतरस और बाकी शिष्यों को परमेश्वर की महान योजना समझ में आई। पतरस ने बाद में एक अवसर पर इस प्रकार प्रचार किया:

प्रेरितों 10:38-43 – परमेश्‍वर ने किस रीति से यीशु नासरी को पवित्र आत्मा और सामर्थ्य से अभिषेक किया; वह भलाई करता और सब को जो शैतान के सताए हुए थे, अच्छा करता फिरा, क्योंकि परमेश्‍वर उसके साथ था। … और उन्होंने उसे काठ पर लटकाकर मार डाला। उसको परमेश्‍वर ने तीसरे दिन जिलाया, और प्रगट भी कर दिया है; … और उसने हमें आज्ञा दी कि लोगों में प्रचार करो और गवाही दो, कि यह वही है जिसे परमेश्‍वर ने जीवतों और मरे हुओं का न्यायी ठहराया है। उसकी सब भविष्यद्वक्‍ता गवाही देते हैं कि जो कोई उस पर विश्‍वास करेगा, उसको उसके नाम के द्वारा पापों की क्षमा मिलेगी।

यीशु मसीह के मृत्यु, दफन, और पुनरुत्थान का सही अर्थ हम तभी समझेंगे जब हमें यह एहसास होगा कि यीशु हमें हमारे पापों से मुक्ति दिलाने आए थे। जिसे परमेश्वर ने संसार का न्याय करने के लिए नियुक्त किया था, वही संसार के लिए अपनी जान कुर्बान करता है, ताकि हमारे पापों का जुर्माना पूरी तरह से चुका दे।

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