
आज की दुनिया में, कुछ देशों को छोड़कर, “राजा” या “राज्य” की बातें कोई नहीं करता। फिर भी हर राष्ट्र और हर समाज किसी न किसी “राजा जैसे व्यक्ति” की चाह रखता है, ऐसे नेता की जो जनता की देखभाल करे, उनकी ज़रूरतें पूरी करे, ना कि अपने स्वार्थी उद्देश्यों के लिए सत्ता का दुरुपयोग करे। पर क्या मानवजाति ऐसा राजा उत्पन्न कर सकती है – जो केवल अपनी प्रजा के लिए जिए? क्या हम अपने खुद के ही दुष्टता को लेकर इतने अनजान है कि ये तक ना समझे कि यदि कोई शासक हममें से उठेगा, तो वह भी हमारी तरह स्वार्थी, घमंडी और दुष्ट ही होगा? पर फिर भी, हम किसी ऐसे व्यक्ति की प्रतीक्षा करते हैं जो हमारे हालात को बदले, जो हमें बचा सके।
पहली सदी का इस्राएल राष्ट्र भी ऐसे ही एक राजा की प्रतीक्षा कर रहा था। सदियों तक वे अन्य राज्यों के अधीन रहे (पहले बाबुल के, फिर मादियों, फारसियों, यूनानियों, और फिर रोमियों के)। उनका दासत्व में पड़ना निर्दोष नहीं बल्कि वे इसके लायक थे, क्योंकि वे परमेश्वर के अज्ञाओं की अवहेलना करने की कीमत चुका रहे थे। वे स्वतंत्रता और एक धर्मी शासक की लालसा रखते थे। एक मसीहा को लेकर उनकी चाहत की आशा हम लोगों की तरह सामान्य नहीं थी; बल्कि वे परमेश्वर के उन वचनों पर भरोसा कर रहे थे जो उनके पूर्वजों को दिए गए थे। अब्राहम से वादा किया गया था कि उसके वंश का एक व्यक्ति न केवल इस्राएल के लिए, बल्कि सभी राष्ट्रों के लिए एक आशीष बनेगा। दाऊद से कहा गया था कि उसकी वंश में से एक पुरुष आएगा जो अनन्तकाल तक राज्य करेगा। और परमेश्वर अपने वचनों के प्रति सच्चे रहे।
समय पूरा होने पर, परमेश्वर ने अपने पुत्र यीशु को भेजा, जो बेतलेहेम में कुँवारी मरियम से जन्मे, ताकि इस्राएल के मसीहा (अभिषिक्त राजा) से संबंधित सारी भविष्यवाणियाँ पूरी हों। पर जैसा कि पवित्र शास्त्रों में भविष्यद्वक्ताओं ने कहा था, इस्राएल ने अपने ही राजा को पहचाना नहीं। यीशु ने स्वर्गीय सत्य सिखाए, अद्भुत चमत्कार किए ताकि यह प्रमाणित हो कि वही मसीहा और परमेश्वर का पुत्र है। फिर भी, उसके लोगों ने उसे ठुकरा दिया क्योंकि वह राजनीतिक रूप से शक्तिशाली राजा नहीं प्रतीत हुआ। यीशु ने स्वयं स्पष्ट कहा था कि वह रोमी सरकार को उखाड़ फेंकने नहीं आए थे। जब यहूदी लोगों ने उन्हे गिरफ्तार करवाया, तो रोमी राज्यपाल पिलातुस भी आश्चर्यचकित हुआ कि इतना अहिंसक व्यक्ति यीशु इस तरह की हलचल यहूदियों के बीच कैसे पैदा कर सकता है। जब पिलातुस ने यीशु से उसके राज्य के बारे में पूछा, तो यीशु ने उत्तर दिया:
“मेरा राज्य इस संसार का नहीं है। यदि मेरा राज्य इस संसार का होता, तो मेरे सेवक लड़ते ताकि मैं यहूदियों के हवाले न किया जाता। पर मेरा राज्य यहाँ का नहीं है।” तब पिलातुस ने कहा, “तो तू राजा है?” यीशु ने उत्तर दिया, “तू ठीक कहता है कि मैं राजा हूँ। मैं इसी कारण जन्मा और इसी कारण जगत में आया हूँ, कि सत्य की गवाही दूँ। जो कोई सत्य का है, वह मेरी वाणी सुनता है।”
– यूहन्ना १८:३६-३७
यीशु ने स्वीकार किया कि वह जन्म से ही राजा हैं, पर वैसा राजा नहीं जैसा उनके लोग चाहते थे। इसी कारण यीशु ने कभी सेना नहीं बनाई, और जब उन्हें गिरफ्तार किया गया या क्रूस पर चढ़ाया गया, तब भी उन्होंने पलटवार नहीं किया । आज भी वह अपने चेलों को सिखाते हैं कि तलवार न उठाओ और बदला न लो। वह एक अलग प्रकार के राजा थे, जो अपने लोगों को उनके असली शत्रु – पाप – से मुक्त करने आए थे। और यह तभी संभव था जब लोग सत्य की ओर लौटें, वह सत्य जो स्वयं यीशु ने अपने जीवन में दिखाया और प्रकट किया, कि परमेश्वर ने अपने पुत्र को संसार में भेजा ताकि पापियों का उद्धार हो सके। परन्तु लोगों ने उनकी वाणी नहीं सुनी, क्योंकि वे सत्य के पक्ष में नहीं होना चाहते थे। इसलिए उन्होंने उसे क्रूस पर चढ़ा दिया। परन्तु परमेश्वर ने यीशु को मृत्यु में से जिलाया, ताकि यह सिद्ध हो कि भले ही लोग उन्हे अस्वीकार करे, इससे सत्य को नहीं बदला जा सकता कि यीशु वास्तव में परमेश्वर का नियुक्त राजा है। पवित्र शास्त्र कहता है कि वह केवल इस्राएल पर ही नहीं, बल्कि संपूर्ण राष्ट्रों पर राज्य करेंगे। वह एक दयालु राजा हैं, जो हर उस व्यक्ति को अनन्त जीवन देते हैं जो उन पर विश्वास करता है। परन्तु वह एक धर्मी और न्यायी राजा भी हैं, जो उन सबका न्याय करेंगे जो सत्य को अस्वीकार करते हैं। तो सवाल यह उठता है: आप सत्य के किस पक्ष में खड़े होना चाहते हैं?
